जिस दिन M.Sc. का रिज़ल्ट आया—
वही दिन था जब तुम सबसे ज़्यादा याद आए।
रिज़ल्ट का पन्ना खुला,
और मेरी सांसें सिकुड़ गईं।
दिल बिना आवाज़ के रोया—
ऐसे रोया कि खुद से भी डर लगने लगा।
मन में बेचैनी का एक घर बना रहा,
हर क़दम पर तुम्हारी परछाई मिली।
ऐसा लगा — तुम आओगे,
और मेरे जाने की वजहें छीन लोगे
इंतज़ार की घड़ियाँ बीतती रहीं
पर तुम नहीं आए
डिपार्टमेंट में सब बधाई देते रहे,
मेरी मुस्कान झूठी, मन उदास।
बाहर निकली— बॉटनी डिपार्टमेंट के पास रुक गई,
फिर से हाथ में रिज़ल्ट पकड़े तुम्हें दिखाने की तमन्ना हुई।
तुम्हारा रिज़ल्ट देखना चाह रही थी
पर यह पहली बार था—
हमने अपने-अपने रिजल्ट एक-दूसरे को नहीं दिखा पाए
मैं तुम्हारे क्लासरूम में गई,
वहाँ मिली सिर्फ़ तुम्हारी गूँज।
आँखों से आँसू बह निकले —
शब्द छोटे पड़ गए, सब कुछ अधूरा रह गया।
पीछे के गार्डन में जाकर बैठी,
न कोई खत था, न कोई ख़बर थी ।
मैं बहुत रोई —
ऐसे रोई जैसे शाम ने आसमाँन से अपना हाथ छीन लिया हो।
अब भी पुकारती हूँ—
“प्रशान्त, कहां हो?”
मेरी आवाज़ हवा में खो गई,
पर मेरा दिल हर बार उसी दरवाज़े पर ठहर गया।
मैंने कहा—
प्लीज़ मेरा रिज़ल्ट देखो,
और अपना रिज़ल्ट मुझे दिखाओ।
अगर मुझसे कोई भूल हुई है तो बताओ—
ऐसी सज़ा मत दो।
क्योंकि तुम आते तो सब आसान हो जाता—
मुस्कराहट लौट आती, सांसें मिल जातीं।
तुम न आए—
तुम्हें आने की आदत थी पर तुम न आये।
कैसे छोड़ दिया तुमने मुझे मरने के लिए—
यह सवाल रोज़ काटों की तरह चुभता है।
मैं घर कैसे पहुँची—याद है अभी भी—
दरवाज़ा खोला, पर भीतर सब सुनसान था।
किसी से तुम्हारा रिज़ल्ट न पूछा—
क्योंकि हर सवाल में तुम्हारी ख़ुशी छिपी थी।
विश्वास से अब नफ़रत होने लगी—
वह शब्द टूट कर काँच बन गया था।
तुमने यह भी नहीं सोचा—
कि मैं कितनी जल्दी घबरा जाती हूँ,
कि मेरा रहना भी तुम्हारे साथ था जुड़ा हुआ।
जीना मुश्किल था,
हर सुबह एक परीक्षा सी लगती थी।
सबका बदला मुझ पर चलाया गया—
और मैं उस सजा को चुपचाप सहती रही।
ज़िन्दगी का वह वक्त—
हवा चली तो घर हिल गया,
छोटी-छोटी चीज़ें बड़ी बन गईं।
पर यादें भी थीं—
बॉटनी डिपार्टमेंट की खुशबू में तुम्हारे हँसने की गूंज,
क्लासरूम की कुर्सियों पर तुम्हारी आवाज़।
यादें ऐसी रोशनी हैं—
जो दिल में जले पर बाहर न दिखें।
मैं ने सीखा—
आंसू भी शब्द बनते हैं,
और चोटें फूलों की तरह खामोशी में खिलती हैं।
तुम्हारे बिना भी मैंने जाना—
कि एक मुस्कान वापस बना लेने में वक्त लगता है।
फिर भी—
हर रिज़ल्ट के पन्ने पर तुम्हारा नाम ढूँढती हूँ,
हर पेड़ से तुम्हारी परछाई पूछती हूँ।
कहीं दरवाज़ा खुला न लगे—
कहीं तुम लौट आओ और चुपके से सब कुछ समझा दोगे।
प्रशान्त, अगर तुम सुनते हो—
वही भावनाएं अभी भी तुम्हें पुकारती है।
पर मैंने भी खुद से वादा किया है—
कि जो टूटा, उसे धीरे-धीरे जोड़ूंगी।
रिश्तों की किताबें कभी-कभी उल्टी खुलती हैं—
पर पन्ने पलटते हैं, और दिन बदलते हैं।
अगर तुम आओगे तो मैं सब कुछ सुन लूंगी—
और अगर न आओ तो मैं अपनी आवाज़ खुद से जोड़ लूंगी।
क्योंकि किसी की मौजूदगी ज़रूरी थी—
और मैंने सिख लिया—
कि साथ की गर्माहट ही नहीं,
अपनी ठंडी रातों को भी रोशन करना आना चाहिए।
रिज़ल्ट का वह पन्ना अब भी अछूता है—
पर अब मैं उसे अकेले पढ़ सकती हूँ।
और फिर भी—
हर शाम जब तुम्हारी ओर चलती हूँ,
एक उम्मीद की मूर्धा मेरे साथ चलती है—
शायद किसी दिन तुम लौट आओगे।