Monday 13 January 2014

जकड़ा हूँ ज़ंज़ीरों में

जकड़ा हूँ

जाने किन ज़ंज़ीरों में

कागज़ पर

खिंची चंद लकीरों में

कि

साँसों को भी

मुहाल है ज़िन्दगी

जाने क्यूँ

बदहाल है ज़िन्दगी

छटपटाता हूँ

पर कटे पंछी की तरह

तड़पता हूँ

जल बिन मछली की तरह

राह कोई सूझता नहीं

चाह कोई बूझता नहीं

मतलब के लिए सब अपने हैं

मतलबों से बाहर सब सपने हैं

ज़िन्दगी जी रहा हूँ औरों के लिए

अपनों को खो रहा हूँ गैरों के लिए

अब और बोझ नहीं उठा सकता

खुद को और नहीं गिरा सकता

ए मौत तू क्यूँ नहीं दखल देती

अपनी बाहों में क्यूँ नहीं भर लेती

थक चुका हूँ मौत से पहले मर मर कर

अब शायद सुकून मिले सच में मर कर